शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

उसकी बोली बात का अंजाम ही कुछ और था

उसकी बोली बात का अंजाम ही कुछ और था
कल तलक उस शख्स का पैगाम ही कुछ और था

आज थकती हैं नहीं तारीफ़ में जिसके, जुबाँ
कल तलक उस शख्स का अंजाम ही कुछ और था

बदली बातें बदले चेहरे आईना दिखला रहा
कल तलक उस शख्स का ईनाम ही कुछ और था

कोई बतलाता है मुसाहिद कोई खादिम कहता है
कल तलक उस शख्स का नाम ही कुछ और था

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नफरतो की आग में झुलसे विसाले लोग हैं
फूल खिलते थे जहां वो बाम ही कुछ और था

मंदिरों में या सियासत में जो है अब छाया हुवा
हमने पूजा था जिसे वो 'राम' ही कुछ और था

दूसरों की बात से मतलब है अब रखने लगा
पहले जिस किरदार का काम ही कुछ और था 

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

ये कैसी आबो-फज़ा हो गयी

ये कैसी आबो-फज़ा हो गयी
इंसानियत रो-रो के क़ज़ा हो गयी

मजहबी हाथों पे जनाजा उठा
सारी दुनिया कि सजा हो गयी

मोशिकी सीख थी खुदाया की
बदलके वो ही मज़ा हो गयी

दर्दमंदों को अब ये लगता है
खुदा की ये ही रजा हो गयी

यूँ ही...

याद आता है,भूल जाता है
गुजर लम्हा कुछ यूँ सताता है
कोई शिकवा रहा जमाने से
कौन खोता है, कौन पाता है

रविवार, 30 जून 2013

बेखुदी में भी प्यार आ जाए

बेखुदी में भी प्यार आ जाए
फिर से वोही बयार आ जाए

कब से खामोश है कलम मेरी
कुछ लिखूं तो करार आ जाए

कैसी फितरत बना ली आदम ने
थोडा रहमो-ख्याल आ जाए

जब भी जिक्र गुजरे अफ्शाने करो
नजर में वो ही प्यार आ जाये

सजदा है कभी न आये खलिश
साजे धुन पर सितार आ जाए

पल सम्हल जाए सबके जीवन में
हर्फ़ जो यादगार आ जाए

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

मुझको ही आज कल....


में राम नहीं कहता
रहमान नहीं कहता
गलियों के भेद को में
इमान नहीं कहता

कस्बों रियासतों में
जो देश को है बाँटे
उस सोच ,बंदगी को
सलाम नहीं कहता

बस एक दिन बना क्या
इंशां को समझने में
बाकी दिन क्या तुमको
ये काम नहीं रहता

बंद कमरों में रहकर
जो सियासी चाल चल रहा है
वो शख्स फिर बदल कर
यूँ आम नहीं रहता

आतंक को मजहब से
यूँ जोड़ के न देखो
जो समझता है ऐसा
इन्शान नहीं रहता

कोई लिख रहा प्रभु है
कोई रट रहा खुदा है
एक दूसरे से होड़
पूजा या अजान नहीं रहता

किस बात को में बोलूं
किस बात को में छोडू
मुझको ही आज कल क्या
आराम नहीं रहता

शनिवार, 5 जनवरी 2013

नया मिलने पे अक्सर ही पुराना छूट जाता है


कभी ये पल कभी बीता फशाना याद आता है
यही दो पल कि दुनिया में रुलाता है हँसाता है

यादों के भरे जाम रहें जीने के लिए याद
खाली रखने पे पैमाना अक्सर फूट जाता है

चाहने वाले जिंदगी में साथ हों हरदम
दूरियों से कभी इजहारे-रिश्ता टूट जाता है

आलम ये है बातो ही बातो में कहीं अक्सर
कभी अबका कभी गुजरा ज़माना रूठ जाता है

कई सदी से रहा है यही अंदाज दुनिया का
नया मिलने पे अक्सर ही पुराना छूट जाता है