शुक्रवार, 8 मार्च 2013

मुझको ही आज कल....


में राम नहीं कहता
रहमान नहीं कहता
गलियों के भेद को में
इमान नहीं कहता

कस्बों रियासतों में
जो देश को है बाँटे
उस सोच ,बंदगी को
सलाम नहीं कहता

बस एक दिन बना क्या
इंशां को समझने में
बाकी दिन क्या तुमको
ये काम नहीं रहता

बंद कमरों में रहकर
जो सियासी चाल चल रहा है
वो शख्स फिर बदल कर
यूँ आम नहीं रहता

आतंक को मजहब से
यूँ जोड़ के न देखो
जो समझता है ऐसा
इन्शान नहीं रहता

कोई लिख रहा प्रभु है
कोई रट रहा खुदा है
एक दूसरे से होड़
पूजा या अजान नहीं रहता

किस बात को में बोलूं
किस बात को में छोडू
मुझको ही आज कल क्या
आराम नहीं रहता