ये आखे है मेरी जो हर हकीकत बोल देती हैं
समंदर में फसी कस्ती की राहें खोल देती हैं
दिखती है आखे बेजुबा से इन गलीचो में
मगर एक रोज़ वो ही दिल बेचारा तोड़ देती हैं ||१|
ज़माने की छुपी आवाज अब भी गूंजती सी है
सवालो की कोई ललकार इतनी आफरी सी है
यहाँ कहते मोहोबत जिस बाला को वो भला क्या है
कोई समझाए मुझको ये मरासिम बेवफा क्या है ||२||
बेवक्त की बरसात की आदत सी हो गयी
इस सहरे नामुराद की फितरत ही ऐसी है
लोगो ने अपने इल्म को आचल में भर लिया
पगला खड़ा सा देखता काटें कहाँ पे हैं ||३||
(कौशल :20-oct-2011 )