मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

यूँ ही हर्फ़ बनके फिरा करूँ


यूँ ही हर्फ़ बनके फिरा करूँ
यूँ ही हर्फ़ बनके मिला करूँ
जो गुजर रही उस धूल में
तुझे कैसे अपनी सदा कहूँ

वो समझता मुझको रकीब है
में समझता उसको रकीब हूँ
ये तो है निगाह का मामला
में यहाँ रहूँ या वहाँ रहूँ

जो समझना चाहे मुझे समझ
हर रंग को तैयार हूँ
जो लगूं सुबह तो हूँ मखमली
जो बयार हूँ तो बयार हूँ

वो जो बोलते हैं खलूस से
मुझे याद करता नहीं है ‘हर्फ़’
जो रहा नहीं था कभी अलग
उसे कैसे खुद से जुदा कहूँ

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

विसंगतियों की चोट


उगते सूरज सा तेज लिए
उतरा भू में अभिगाम हुआ
दो नैनों संग व्याकुल मुखडा
लाखो सपनो का गाँव हुआ

फूलो कि सेज मिली सोने
अम्बर खुसियो का धाम हुआ
छोटी सी दो अंजुलियों में
हर्षित सारा ब्रह्माण्ड हुआ

उगता चंदा खिलते तारे
यही कहानी कहते थे
सुन्दर परियों के डेने में
रात ढली कि घाम हुआ
............
कुछ करने कि थी चाह बड़ी
कुछ पाने का अभिमान हुआ
लहरों पे टिके घरोंदे पर
देखा उसका भी नाम हुआ

मानवता का ज्ञान उसे
कुछ अहसासों के बाद हुआ
बस्ती बस्ती जब भटक लिया
तब जाकर आराम हुआ....

घनघोर प्रलापों से उठकर
वो अंत-हीन भटका था बहुत
शीतल वन की थी चाह उसे
तपता रेत प्रलाप हुआ....

उस एकाकी अनजान प्रहर में
भटक-भटक कर टूट-टूट कर
अप्लव मंथन सा व्याकुल सा
अर्थ-हीन संताप हुआ.....
............
वो जाग गया वो भाग गया
जब देखा रूप निढाल हुआ
इस मदिरालय की हाला से,
बेहतर जाना बनवास हुआ.....
____ : कौशल