रविवार, 7 अक्तूबर 2012

विसंगतियों की चोट


उगते सूरज सा तेज लिए
उतरा भू में अभिगाम हुआ
दो नैनों संग व्याकुल मुखडा
लाखो सपनो का गाँव हुआ

फूलो कि सेज मिली सोने
अम्बर खुसियो का धाम हुआ
छोटी सी दो अंजुलियों में
हर्षित सारा ब्रह्माण्ड हुआ

उगता चंदा खिलते तारे
यही कहानी कहते थे
सुन्दर परियों के डेने में
रात ढली कि घाम हुआ
............
कुछ करने कि थी चाह बड़ी
कुछ पाने का अभिमान हुआ
लहरों पे टिके घरोंदे पर
देखा उसका भी नाम हुआ

मानवता का ज्ञान उसे
कुछ अहसासों के बाद हुआ
बस्ती बस्ती जब भटक लिया
तब जाकर आराम हुआ....

घनघोर प्रलापों से उठकर
वो अंत-हीन भटका था बहुत
शीतल वन की थी चाह उसे
तपता रेत प्रलाप हुआ....

उस एकाकी अनजान प्रहर में
भटक-भटक कर टूट-टूट कर
अप्लव मंथन सा व्याकुल सा
अर्थ-हीन संताप हुआ.....
............
वो जाग गया वो भाग गया
जब देखा रूप निढाल हुआ
इस मदिरालय की हाला से,
बेहतर जाना बनवास हुआ.....
____ : कौशल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें