बुधवार, 2 मई 2012

ग़ज़ल


तजरुबा आदमी का करते हैं

रोज़ जीते हैं रोज़ मरते हैं ।।


जब भी कूचे पे देख लें साए

राह वो छोड़ के गुजरते हैं ।।

परस्तिश की नहीं कोई चाहत
जिससे मिलतें हैं दिल-से मिलते हैं ।।

दोस्त मिल जाये जब कहीं कोई
रात पूरी ये जाम चलते हैं ।।

जब तमाशा ही देखना चाहो
देख लो लोग क्या-क्या करते हैं ।।
______ ~कौशल ~___________

6 टिप्‍पणियां:

  1. परस्तिश की नहीं कोई चाहत
    जिससे मिलतें हैं दिल-से मिलते हैं ।।

    बहुत खूब सर!

    सादर

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  2. धन्यवाद यशवंत जी __ आपके कमेन्ट से लिकने की उर्जा मिलती है __ बहुत बहुत आभार

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  3. कौशल उप्रेती जी बहुत सुन्दर गजल लिखी है आप ने
    आज प्रथम बार ही मुझे आप के ब्लॉग का रास्ता मिला उम्दा
    तजरुबा आदमी का करते हैं

    रोज़ जीते हैं रोज़ मरते हैं ।।


    जब भी कूचे पे देख लें साए

    राह वो छोड़ के गुजरते हैं ।।

    जवाब देंहटाएं
  4. परस्तिश की नहीं कोई चाहत
    जिससे मिलतें हैं दिल-से मिलते हैं ।।

    वाह...
    बहुत बढ़िया...

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